अक्षरारम्भ संस्कार को विद्यारम्भ संस्कार भी कहते है | हिन्दू धर्म में जब बालक बालिका शिक्षा अध्ययन करने योग्य हो जाये तो विद्यारम्भ संस्कार कराया जाता है |
बालकके पाँचवें वर्षमें उसका अक्षरारम्भ संस्कार करना चाहिए अर्थात् उसे अक्षरोंका ज्ञान कराना चाहिये।
प्राप्तेऽथ पञ्चमे वर्षे विद्यारम्भं तु कारयेत् ।’
अक्षराम्भसंस्कार क्षर (जीव) – का अक्षर (परमात्मा) से सम्बन्ध करानेवाला संस्कार है, इस दृष्टिसे इस संस्कारकी मानव-जीवनमें महती भूमिका है। गीतामें स्वयं भगवान् अक्षरकी महिमा बताते हुए कहते हैं कि अक्षरों में ‘अ’ कार मैं ही हूँ — अक्षराणामकारोऽस्मि।
इसी प्रकार ‘गिरामस्म्येकमक्षरम्‘ कहकर उन्होंने अपनेको ओंकार अक्षर बताया है। इतना ही नहीं उन्होंने अक्षरकी महिमाका ख्यापन करते हुए कहा – ‘अक्षरं ब्रह्म परमं’ अर्थात् परम अक्षर ही परम ब्रह्म परमात्मा है, जो ओंकार-पदसे अभिव्यक्त है— ‘ओमित्येकाक्षरंब्रह्म।‘ इसीलिये पाटीपूजनमें प्रारम्भमें ‘ॐ नमः सिद्धम्’ लिखायाजाता है।
इस अक्षरारम्भसंस्कारको ही लोकमें विद्यारम्भसंस्कार और’पाटीपूजन’ आदि नामोंसे भी अभिहित किया जाता है। प्रत्येक शुभ कर्मके पहले जैसे आदिपूज्य गणेशजीके पूजनका विधान है, वैसे ही इस अक्षरारम्भ या विद्यारम्भसंस्कारके श्रीगणेशमें भी गणेशजीके ध्यान-पूजनका विधान है।
श्रीगणेशद्वादशनामस्तोत्रकी
फलश्रुतिमें विद्यारम्भसंस्कारकी चर्चा आयी है, जिसमें कहा गया है कि श्रीगणेशजीके द्वादश नामोंका स्मरण करनेसे विद्यारम्भ, विवाहादि संस्कारों में कोई विघ्न नहीं आते
विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा ।
संग्रामे सटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते ॥
इस प्रकार अक्षरारम्भ या विद्यारम्भसंस्कार मानव-जीवनका
अत्यन्त महत्त्वपूर्ण संस्कार है।