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चूडाकरण संस्कार (मुंडन संस्कार )

जब बच्चे के सिर के बाल पहली बार उतारे जाते हैं तो उसे चूड़ाकर्म यानी मुण्डन संस्कार कहते हैं।

जब शिशु की आयु एक वर्ष, तीन वर्ष, पांच वर्ष या सात वर्ष हो जाती है तब बच्चे के बाल उतारे जाते हैं। मान्यता है कि इससे सिर मजबूत होता है। साथ ही बुद्धि भी तेज होती है। सिर्फ यही नहीं, इससे बच्चे के बालों में जो किटाणु चिपके रह जाते हैं वो भी नष्ट हो जाते हैं।

तेन ते आयुषे वपामि सुश्लोकाय स्वस्त्ये

चूड़ाकरण (मुडंन, शिखा) संस्कार अष्टम संस्कार है।

चूडाकरणका अभिप्राय और उसका काल-
‘चूडा क्रियते अस्मिन्’- इस विग्रहके अनुसार चूडाकरण-संस्कारका अभिप्राय है, वह संस्कार जिसमें बालकको चूडा अथवा शिखा धारण करायी जाय। इसको मुण्डन-संस्कार भी कहते हैं। इसमें अनुष्ठेय मुख्य कार्य शिशुका केशमुण्डन है। यह संस्कार बल, आयु एवं तेजकी वृद्धिके लिये किया जानेवाला संस्कार है। मनुजीने इस संस्कारके विषयमें कहा है कि जन्मसे प्रथम या तृतीय वर्षमें बालक का चूडाकर्म करना चाहिये|

चूडाकर्म द्विजातीनां सर्वेषामेव धर्मतः ।
प्रथमेऽब्दे तृतीये वा कर्तव्यं श्रुतिचोदनात् ॥
(मनुस्मृति २।३५ )


महर्षि याज्ञवल्क्यजीका कथन है कि जिसके यहाँ जैसी कुलकी प्रथा हो, तदनुसार चूडाकर्म करे- ‘चूडा कार्या यथाकुलम्।’

कुलाचारके अनुसार कहीं-कहीं पाँचवें वर्षमें अथवा यज्ञोपवीत- साथ भी चूडाकरण करनेकी परम्परा है। चूडाकरणसंस्कारकी उपयोगिता और वैज्ञानिकता-चूडाकरणसंस्कारमें मुख्य रूपसे गर्भकालीन केशोंका कर्तन करके शिखा रखी जाती है, शिखा क्यों रखी जाती है|

मुंडन संस्कार की उपयोगिता महर्षि कात्यायन जी के वचन


इसकी क्या उपयोगिता है, इसके सम्बन्धमें महर्षियोंने बहुत बातें बतायी हैं संक्षेपमें कुछ बातें यहाँ दी जा रही हैं महर्षि कात्यायनका वचन है-


सदोपवीतिना भाव्यं सदा बद्धशिखेन च।
विशिखो व्युपवीतश्च यत् करोति न तत्कृतम् ॥

अर्थात् द्विजोंको सदा यज्ञोपवीत धारण करना चाहिये और शिखामें ग्रन्थि लगाये रखनी चाहिये। शिखा तथा यज्ञोपवीतके बिना वह जो कर्म करता है, वह निष्फल होता है।स्नान, दान, जप, होम, सन्ध्या, देवपूजन आदि समस्त नित्य नैमित्तिक कर्मोंमें शिखामें ग्रन्थि लगी होनी चाहिये-


स्नाने दाने जपे होमे सन्ध्यायां देवतार्चने ।
शिखाग्रन्थिं सदा कुर्यादित्येतन्मनुरब्रवीत् ॥

शिखा ग्रन्थि का वर्णन शास्त्रों में है |

तेन ते आयुषे वपामि सुश्लोकाय स्वस्त्ये।

अर्थात् चूडाकर्म से दीर्घ आयु प्राप्त होती है। शिशु सुंदर तथा कल्याणकारी कार्यों की और प्रवृत्त होने वाला बनता है। वेदों में चूडाकर्म-संस्कार का विस्तार से उल्लेख मिलता है। यजुर्वेद में लिखा है

चूडाकर्म-संस्कार का विस्तार से उल्लेख मिलता है। यजुर्वेद में लिखा है|


यदि रोग या वृद्धावस्थाके कारण शिखास्थानके बाल गिर गये हों तो उस स्थानपर तिल, कुशपत्र, दूर्वा या चावल रखनेका विधान है।
शिखा तेजको बढ़ाती है, दीर्घ आयु तथा बलवर्धक भी है- ‘दीर्घायुत्वाय बलाय वर्चसे शिखायै वषट् ।’ इसीलिये जपादि एवं पाठादिके पूर्व शिखाका स्पर्श करके न्यास किया जाता है। कहा जाता है हमारी ज्ञानशक्तिको बढ़ाती है और हमें चैतन्यता प्रदान करती है।शिखा सिरमें जिस स्थानपर रखी जाती है, वह स्थान सहस्त्रारचक्र का केन्द्र है। शिखाके स्थानके नीचे बुद्धिका चक्र है और इसीके पास ब्रह्मरन्ध्र है। बुद्धिचक्र एवं ब्रह्मरन्ध्र के ऊपर सहस्रदलकमलमें अमृतरूपो ब्रह्मका अधिष्ठान है। जब हम चिन्तन, मनन आदि करते हैं या ध्यान करते हैं तब इस ध्यानसे उत्पन्न अमृततत्त्व सहस्रदलकर्णिकामें प्रविष्ट ।होकर सिरसे बाहर निकलनेका प्रयत्न करता है। इस समय यदि शिखामें ग्रन्थि लगी हो तो वह अमृततत्त्व नहीं निकलने पाता, अतः शिखास्थानका बहुत महत्त्व है।

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