अयोध्यानगरी नित्या सच्चिदानन्दरूपिणी।
यस्यांशांशेन वैकुंण्ठो गओलओकआदइः प्रतिष्ठितः।।
यत्र श्रीसरयूर्नित्या प्रेमवारिप्रवाहिणी।
यस्या अंशेन सम्भूता विरजादिसरिद्वराः।।
अयोध्या नगरी नित्य है । वह सच्चिदानंदरूपा है। वैकुंठ एवं गोलोक आदि भगवद्धाम अयोध्याके अंशके अंशसे निर्मित हैं। इसी नगरी के बाहर सरयू नदी है, जिसमें श्रीरामके प्रेमाश्रुओंका जल ही प्रवाहित हो रहा है। विरजा आदि श्रेष्ठ नदियां इन्हीं सरयू के किसी अंश से उद्भूत हैं।
साकेतके पुरद्वारे सरयूः केलिकारिणी।।
उस अयोध्या नगरी के द्वार पर सरयू नदी क्रीडा करती रहती हैं।
जो बाहर से तीसरा और भीतर से निकलने पर छठा आवरण है, उसमें महाशिव, महाब्रह्मा, महेंद्र, वरुण, कुबेर, धर्मराज, महान् दिक्पाल, महासूर्य, महाचंद्र, यक्ष, गंधर्व, गुह्यक, केनल,विद्याधर, सिद्ध, चारण, अष्ट सिद्धियां, और नवनिधियां दिव्य रूप से निवास करती हैं।
बाहरसे चौथा और भीतरसे निकलने पर पांचवां आवरण है, उसमें दिव्यविग्रहधारी वेद- उपवेद, पुराण, उपुराण, ज्योतिष, रहस्य,तंत्र ,नाटक, काव्य ,कोश, ज्ञान ,कर्म ,योग ,वैराग्य ,यम, नियम ,कालक्रम ,गुण आदि निवास करते हैं।
जो बाहर से पांचवा तथा भीतर से चौथा आवरण है उसमें भगवान का मानसिक ध्यान करने वाले योगी और ज्ञानी जन निवास करते हैं।
साकेत पुरी के पांचवें घेरे में विद्वान लोग उस सच्चिनमय ज्योतिरूप ब्रह्मका निवास बतलाते हैं, जो निष्क्रिय, निर्विकल्प, निर्विशेष, निराकार, ज्ञानाकार, निरंजन (माया के लेस से शून्य) वाणीका, अविषय, प्रकृतिजन्य,( सत्व,रज आदि) गुणों से रहित, सनातन, अंतरहित, सर्वरसाक्षी, संपूर्ण इंद्रियों एवं उसके विषयों की पकड़ में न आने वाला, अपितु उन सबको प्रकाश देने वाला, सन्यासियों, योगियों और ज्ञानियोंका लयस्थान है।
जो बाहर से पांचवा और भीतर से निकलने पर चौथा आवरण है, उसमें महाविष्णुलोक ,रमावैकुंठ, अष्टभुज भूमा पुरुषकालोक, महाब्रह्मलोक और महाशंभुलोक हैं।
गर्भोदकशायी एवं क्षीराब्धिशायी भगवान् नारायण तथा श्वेतदीपाधिपति एवं रमावैकुंठनायक भगवान् विष्णु _ ये सभी अयोध्या के चौथे घेरे में स्थित रहकर उसी नगरी का सेवन करते हैं ।
जो बाहरसे जानेपर छठा और भीतर से निकलनेमें तीसरा आवरण है, उसमें मिथिलापुरी, चित्रकूट, वृंदावन, महावैकुंठ, अथवा भूत – बैकुंठ विराजमान है। कहा गया है _
अयोध्या का बाहरी स्थान ही ‘गोलोक’ कहलाता है।
।।श्रीरामभक्ति अंङ्क।।