।।मुहूर्त विचार।।
प्राचीन काल से ही प्रत्येक मांगलिक कार्य के लिए शुभ समय का विचार किया
जाता रहा है। क्योंकि समय का प्रभाव जड़ और चेतन सभी प्रकार के पदार्थों पर
पड़ता है, इसीलिए हमारे आचार्यों ने गर्भाधानादि अन्यान्य संस्कार व प्रतिष्ठा, गृहारम्भ,गृहप्रवेश, यात्रा आदि सभी मांगलिक कार्यों के लिए मुहूर्त का आश्रय लेना आवश्यक बतलाया है। अतएव नीचे प्रमुख आवश्यक मुहूर्त दिये जाते हैं :
।।सुतिका स्नान मुहूर्त ।।
रेवती, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपद,रोहिणी, मृगशिर, हस्त, स्वाति, अश्विनी और अनुराधा नक्षत्रों में रवि, मंगल और बृहस्पति वारों में प्रसूता स्त्री को स्नान कराना शुभ है। आर्द्रा, पुनर्दसु, पुष्य, श्रवण, मघा, भरणी, विशाखा, कृत्तिका, मूल और चित्रा नक्षत्रों में, बुध और शनि वारों में एवं अष्टमी, षष्ठी, द्वादशी, चतुर्थी, नवमी और चतुर्दशी तिथियों में प्रसुता स्त्री को स्नान कराना वर्जित है।
विशेष—
प्रत्येक शुभ कार्य में व्यतीपात योग, भद्रा, वैधृति नामक योग, क्षयतिथि, वृद्धितिथि, क्षयमास, अधिकमास, कुलिक, अर्द्धयाम, महापात, विष्कम्भ और वज्र
के आदि की तीन-तीन घटियाँ, परिघ योग का पूर्वार्द्ध, शूलयोग की पाँच घटियाँ, गण्ड और अतिगण्ड की छह-छह घटियाँ एवं व्याघात योग की नौ घटियाँ त्याज्य हैं ।
।।स्तन-पान मुहूर्त ।।
अश्विनी, रोहिणी, पुष्य, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा,
अनुराधा, मूल, उत्तराषाढा, श्रवण, घनिष्ठा, शतभिषा, उत्तराभाद्रपद और रेवती नक्षत्रों,
सोम, बुध, गुरु व शुक्र वारों में तथा शुभ लग्नों में स्तनपान कराना चाहिए ।
।।जातकर्म और नामकर्म मुहूर्त ।।
यदि किसी कारणवश जन्म-काल में जातकर्म नहीं
किया गया हो तो अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या, पौर्णमासी, सूर्यसंक्रान्ति तथा चतुर्थी और नवमी छोड़ अन्य तिथियों में; सोम, बुध, गुरु और शुक्र वारों में; जन्मकाल से ग्यारहवें या बारहवं दिन में; मृगशिरा, रेवती, चित्रा, अनुराधा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तरा-भाद्रपद, रोहिणी, श्रवण, धनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्रों में जातकर्म और नामकर्म करना शुभ है । जैन मान्यता के अनुसार नामकर्म जन्मदिन से ४५ दिन तक किया जा सकता है।
दोलारोहण मुहूर्त — रेवती, मृगशिर, चित्रा, अनुराधा, हस्त, अश्विनी, पुष्य,
अभिजित्, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद और रोहिणी नक्षत्रों में तथा सोम,बुध, गुरु और शुक्रवारों में पहले-पहल बालक को पालने में झुलाना शुभ है।
भूम्युपवेशन मुहूर्त।। – रोहिणी, मृगशिर, ज्येष्ठा, अनुराधा, हस्त, अश्विनी, पुष्य,
उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा व उत्तराभाद्रपद नक्षत्रों में; चतुर्थी, नवमी व चतुर्दशी को छोड़ शेष तिथियों में और सोम, बुध, गुरु व शुक्र वारों में बालक को भूमि पर बैठाना शुभ है।
बालक को बाहर निकालने का मुहूर्त ।। – अश्विनी, मृगशिर, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त,
अनुराधा, श्रवण, धनिष्ठा और रेवती नक्षत्रों में; द्वितीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, एकादशी और त्रयोदशी तिथियों में एवं सोम, बुध, शुक्र और रवि वारों में बालक को पहले-पहल घर से बाहर निकालना शुभ है।
अन्नप्राशन मुहूर्त ।। – चतुर्थी, नवमी, चतुर्दशी, प्रतिपदा, षष्टी, एकादशी, अष्टमी,
अमावस्या और द्वादशी तिथि को छोड़ अन्य तिथियों में; जन्मराशि अथवा जन्मलग्न से आठवीं राशि, आठवीं नवांश, मीन, मेष और वृश्चिक को छोड़ अन्य लग्नों मे; तीनों
उत्तरा, रोहिणी, मृगशिर, रेवती, चित्रा, अनुराधा, हस्त, अश्विनी, पुष्प, अभिजित,
स्वाति, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्र में, छठे मास से लेकर सम मास में अर्थात् छठे, आठवें, दसवें इत्यादि मासों में बालकों का और पाँचवें मास से लेकर विषम मासों मे अर्थात् पाँचवें, सातवें, नवें इत्यादि मासों में कन्याओं का अन्नप्राशन शुभ होता. है। परन्तु अन्नप्राशन शुक्लपक्ष में दोपहर के पूर्व करना चाहिए ।
अन्नप्राशन के लिए लग्न शुद्धि।। -लग्न से पहले, तोसरे, चौथे, पाँचवें, सातवें और
नौवें स्थान में शुभग्रह हों; दसवें स्थान में कोई ग्रह न हो; तृतीय, षष्ठ और एकादश स्थान में पापग्रह हों और लग्न, छठे तथा आठवें स्थान को छोड़ अन्य स्थानों में चन्द्रमा स्थित हो ऐसे लग्न में अन्नप्राशन शुभ होता है ।
(भारतीय ज्योतिष)
चैत्र, पौष, आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी जन्ममास, रिक्तातिथि (४।९।१४), सम वर्ष और जन्मतारा को छोड़कर जन्म से छठे,सातवें, आठवें महीने में अथवा बारहवें या सोलहवें दिन, सोमवार, बुध, गुरु, शुक्र में और श्रवण, धनिष्ठा, पुनर्वसु, मृगशिर, रेवती, चित्रा, अनुराधा, हस्त, अश्विनी, पुष्य और अभिजित् नक्षत्र में का कर्णवेध शुभ होता है ।
जन्म से तीसरे, पाँचवें, सातवें इत्यादि विषम वर्षों
में, अष्टमी, द्वादशी, चतुर्थी, नवमी, चतुर्दशी, प्रतिपदा, पष्ठी, अमावस्था, पूर्णमासी
और सूर्य-संक्रान्ति को छोड़ अन्य तिथियों में, चैत्र महीने को छोड़ उत्तरायण में, सोम, बुध, शुक्र और बृहस्पति वारों में; शुभग्रहों के लग्न अथवा नवांश में; जिसका मुण्डन कराना हो उसके जन्मलग्न अथवा जन्मराशि से आठवीं राशि को छोड़कर अन्य लग्न व राशि में, लग्न से आठवें स्थान में शुक्र को छोड़ अन्य ग्रहों के न रहते; ज्येष्ठा, मृगशिर, रेवती, चित्रा, स्वाति, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, हस्त, अश्विनी और पुष्य नक्षत्र में, लग्न से तृतीय, एकादश और षष्ट स्थान में पापग्रहों के रहते मुण्डन कराना शुभ है।
– जन्म से पाँचवें वर्ष में; एकादशी, द्वादशी, दशमी, द्वितीया
षष्ठी, पंचमी और तृतीया तिथि में; उत्तरायण में, हस्त, अश्विनी, पुष्य, श्रवण, स्वाति,,रेवती, पुनर्वसु, आर्द्रा, चित्रा और अन्राघा नक्षत्र में, मेष, मकर, तुला और कर्क को छोड़ अन्य लग्न में बालक को अक्षरारम्भ कराना शुभ है।
मृगशिर, आर्द्रा, पुनर्वसु, हस्त, चित्रा, स्वाति, श्रवण, धनिष्ठा,
शतभिषा, अश्विनी, मूल, तीनों पूर्वा (पूर्वाभाद्रपद, पूर्वागढ़ा, पूर्वाफाल्गुनी), पुष्य,
आश्लेषा नक्षत्रों में; रवि, गुरु, शुक्र इनवारों में, षष्ठी, पंचमी, तृतीया, एकादशी,
द्वादशी, दशमी, द्वितीया इन तिथियों में और लग्न से नवें, पाँचवें, पहले, चौथे, सातवें,
दसवें स्थान में शुभग्रहों के रहने पर विद्यारम्भ करना शुभ है। किसी-किसी आचार्य केमत से तीनों उत्तरा, रेवती और अनुराधा में भी विद्यारम्भ करना शुभ कहा गया है।
वाग्वान मुहूर्त
उत्तराषाढ़ा, स्वाति, श्रवण, तीनों पूर्वा, अनुराधा, घनिष्ठा,
कृत्तिका, रोहिणी, रेवती, मूल, मृगशिरा, मघा, हस्त, उत्तराफाल्गुनी और उत्तराभाद्रपद नक्षत्रों में वाग्दान करना शुभ है ।
।।वधूप्रवेश मुहूर्त।। –
विवाह के दिन से १६ दिन के भीतर नव, सात, पाँच दिन में
वधूप्रवेश शुभ है। यदि किसी कारण से १६ दिन के भीतर वधूप्रवेश न हो तो विषम मास,विषम दिन और विषम वर्ष में वधूप्रवेश करना चाहिए। तीनों उत्तरा (उत्तराभाद्रपद, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा), रोहिणी, अश्विनी,पुष्य, हस्त, चित्रा, अनुराधा, रेवती, मृगशिर, श्रवण, घनिष्ठा, मूल, मघा और स्वाति नक्षत्र में; रिक्ता (४।९।१४) को छोड़ शुभ तिथियों में और रवि, मंगल, बुध छोड़ शेष वारों में बधूप्रवेश करना शुभ है।
विषम (१।३।५।७) वर्षों में, कुम्भ, वृश्चिक, मेष राशियों के सूर्य में गुरु, शुक्र, चन्द्र इन वारों में, मिथुन, मीन, कन्या, तुला, वृष इन लग्नों में और अश्विनी पुष्य, उत्तराषाढ़ा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी, श्रवण,घनिष्ठा, शतभिषा, पुनर्वसु, स्वाति, मूल, मृगशिरा, रेवती, चित्रा अनुराधा इन नक्षत्रों में द्विरागमन शुभ है। द्विरागमन में सम्मुख शुक्र त्याज्य है। रेवती नक्षत्र के आदि से मृगशिरा के अन्त तक चन्द्रमा के रहने से एक अन्ध माना जाता है। इन दिनों में द्विरागमन होने से दोष नहीं होता। शुक्र का दक्षिण भाग में रहना भी अशुभ है।
अश्विनी, पुनर्वसु, अनुराधा, मृगशिरा, पुष्य, रेवती, हस्त, श्रवण और धनिष्ठा ये नक्षत्र यात्रा के लिए उत्तम; रोहिणी, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तरा भाद्रपद, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वापाड़ा, पूर्वाभाद्रपद, ज्येष्ठा, मूल और शतभिषा ये नक्षत्र मध्यम एवं भरणी, कृत्तिका, आर्द्रा, आश्लेषा, मघा, चित्रा, स्वाति और विशाखा ये नक्षत्र निन्द्य है। तिथियों में द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, एकादशी और त्रयोदशी शुभ बतायी गयी हैं। यात्रा के लिए वारशूल, नक्षत्रगुल, दिवशूल, चन्द्रवास और राशि से
चन्द्रमा का विचार करना आवश्यक है। कहा भी गया है।
“दिशाशूल ले आओ वामें राहु योगिनी पीठ
सम्मुख लेवे चन्द्रमा, लावे लक्ष्मी लूट”
ज्येष्ठा नक्षत्र, सोमवार तथा शनिवार को पूर्व, पूर्वाभाद्रपद और गुरुवार को दक्षिण; शुक्रवार और रोहिणी नक्षत्र को पश्चिम और मंगल तथा बुधवार को उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में उत्तर दिशा को नहीं जाना चाहिए । यात्रा में चन्द्रमा का विचार अवश्य करना चाहिए। दिशाओं में चन्द्रमा का वास निम्न प्रकारसे जाना जाता है।
मेष, सिंह और धनु राशि का चन्द्रमा पूर्व दिशा में; वृष, कन्या और मकर राशि का चन्द्रमा दक्षिण दिशा में; तुला, मिथुन व कुम्भ राशि का चन्द्रमा पश्चिम दिशा में; कर्क, वृश्चिक और मीन राशि का चन्द्रमा उत्तर दिशा में वास करता है।
चन्द्र फल- सम्मुख चन्द्रम धनलाभ करनेवाला, दक्षिण चन्द्रमा सुख-सम्पत्ति देनेवाला, पृष्ठ चन्द्रमा शोक-सन्ताप देनेवाला और वाम चन्द्रमा घनानाश करनेवाला होता है।