चैत्र शुक्ल पूर्णिमा मंगलवार की पवित्र बेला थी भगवान शिव अपनी परम आराध्य श्रीरामकी मुनि मनमोहिनी अवतार लीला के दर्शन एवं उसमें सहायता प्रदान करने के लिए अपने अंश ग्यारहवें रुद्र से इस शुभ तिथि और नक्षत्र मुहूर्त में
महाचैत्रिपूर्णिमायां समुत्पन्नोऽञ्जनीसुतः ।(आनं.सारकां)
कल्पभेद से कुछ लोग इनका प्राकट्य-काल चैत्र शुक्ल पक्ष एकादशीके दिन मघा नक्षत्र में मानते हैं ।
चैत्रे मासि सिते पक्षे हरिदिन्यां मघाविधे।
नक्षत्रे स समुत्पन्नो हनुमान् रिपुसूदनः।।
वहीं कुछ लोग कार्तिक चतुर्दशी को और कुछ लोग कार्तिक पूर्णिमा को पवन पुत्र का जन्म मानते हैं ।
कोई मंगलवार तो कोई शनिवार को इनका जन्मदिन स्वीकार करते हैं भावुक भक्तों के लिए अपने आराध्य की सभी पुण्यतिथियां श्रेष्ठ है।
भगवान शिव के ग्यारहवें रुद्रावतार हैं।
जेहि सरीर रति राम सों, सोइ आदरहिं सुजान।
रुद्रदेह तजि नेहबस ,वानर भे हनुमान।।
जानि राम सेवा सरस समुझि करब अनुमान। पुरुषा ते सेवक भए हर ते भे हनुमान।।(दोहावली)
मारुतात्मज, केसरी-किशोर अंजना नंदनके धरती पर चरण रखने के समय प्रकृति पूर्णतया रम्य हो गई थी। दिशाएं प्रसन्न थीं। सूर्यदेवकी किरणें सुखद शीतल थी। सरिताओंमें स्वच्छ सलिल बहने लगा था। पर्वत उत्सुक नेत्रों से आंजनेयके आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थे। प्रपात प्रसन्नतासे उछलते हुए गतिशील थे। वनों, उपवनों, बागों और वाटिकाओंमें विविध रंग के मनोहर पुष्प खिल उठे थे।उनपर भ्रमरावली गुंजार कर रही थी। मरमत्त वायु मंथर गतिसे डोल रहा था।
भगवान शंकर माता अंजनाके लालके रूपमें प्रकट हुए।प्राकट्य काल में ही हनुमान जी का सौन्दर्य अतुलनीय एवं अवर्णनीय था। उनकी अंङ्ग- कान्ति पिङ्गलवर्णकी थी। उनके रोम, केश एवं नेत्र भी पिंङ्गलवर्णके ही थे।हनुमानजी विद्युच्छटा-तुल्य स्वर्णनिर्मित मनोहर कुंडल धारण किए हुए ही माता अञ्जनाकी कुक्षिसे अवतरित हुए। उनके मस्तक पर मणि जटित टोपी शोभा दे रही थी और वे कौपीन और कछनी काछे हुए थे। उनके प्रशस्त वक्षपर यज्ञोपवीत शोभा दे रहा था एवं हाथ में वज्र और कटि- प्रदेशमें मूंजकी मेखला सुशोभित थी।अपने पुत्र का अलौकिक रूप-सौंदर्य देखते ही माता अंजना आनंद विभोर हो गयीं।
भाग्यवती धरित्रीपर हनुमानजीके चरण रखते ही माता अञ्जना और कविराज केसरी के आनंद की तो सीमा नहीं ही थी, चतुर्दिक हर्षोल्लासकी लहरें दौड़ पड़ी। देवगण,ऋषिगण,कपइगण,पर्वत, प्रपात,सर ,सरिता, समुद्र ,पशु, पक्षी और जड़ चेतन ही नहीं स्वयं माता वसुंधरा पुलकित हो उठीं। सर्वत्र हर्ष एवं उल्लास प्रसारित था चतुर्दिक आनंद का साम्राज्य व्याप्त हो गया था।