भोगस्थानं परायोध्या लीलास्थानं त्वियं भुवि।
भोगलीलापती रामो निरङ्कुशविभूतिकः।।
परव्योमस्थित अयोध्या दिव्य (भगवतस्वरूप )भोगोंकी भूमि है और पृथ्वीगत यह (सबके लिए प्रत्यक्ष )अयोध्या लीलाभूमि है । इन दोनों अयोध्याओंके स्वामी श्रीराम भोग और लीला, दोनों के मालिक हैं । उनकी विभूति (ऐश्वर्य) अंकुशहीन (स्वतंत्र) है।
अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या।
तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषाऽऽवृतः।।
ब्रह्मकी उस पुरी (भोगस्थान पूः अयोध्या )के नाम और रूप को स्पष्ट रूप में यह मंत्र बताता है।
(पूः अयोध्या) वह पुरी अयोध्या जी ऐसी हैं (अष्टचक्रा) जिसमें आठ आवरण हैं ।(नवद्वारा) जिसमें प्रधान नवद्वार तथा जो (देवानाम्) दिव्यगुणविशिष्ट, भक्तिप्रपत्तिसंपन्न, यमनियमादिमान्, परमभागवत चेतनोंसे ‘सेव्य इति शेषः’ सेवनीय है । (तस्यां स्वर्ग:) उस अयोध्यापुरीमें बहुत ऊंचा अथवा बहुत सुंदर (ज्योतिषा अआवृतः) प्रकाशपुंञ्जसे आच्छादित, (हिरण्य: कोशः) स्वर्णमय मंडप है।
इस मंत्र में अयोध्या जी का स्वरूप वर्णन है । अयोध्यापुरीके चारों ओर कनकोज्ज्वल, दिव्यप्रकाशात्मक आवरण है जो भीतर से निकलने पर अष्टमावरण और बाहर से प्रवेश करने पर प्रथमावरण या प्रथम चक्र है।
ब्रह्मज्योतिरयोध्याया: प्रथमावरणे शुभम्।
यत्र गच्छन्ति कैवल्याः सोऽहमस्मीतिवादिनः ।।
अयोध्या के सर्वप्रथम घेरेमें शुभ्र ब्रह्ममयी ज्योति प्रकाशित है। ‘सोऽहम् सोऽहम्’ कहने वाले कैवल्यकामी पुरुष (मरने पर) इसी ज्योति में प्रवेश करते हैं।
‘सोऽहं’ या ‘ अहं ब्रह्मास्मि ॔ वादियोंका ॓सुरदुर्लभ कैवल्यपरमपद’ वही है। उस आवरण में सर्वत्र दिव्य भव्य प्रकाशमात्र रहता है।
बाहरसे प्रवेश करनेपर द्वितीय, किंतु भीतरसे निकलने पर सप्तमावरण अर्थात् सप्तम चक्र है, जिसमें प्रवहमाना श्रीसरयू जी हैं।
“श्रीरामभक्ति अंङ्क”