जो हम करते हैं वह नया काम है, और जो घटना घटती है वह पुराने कर्म का फल है। प्रारब्ध और पुरुषार्थ का विभाग अलग-अलग है ,,, भजन, ध्यान ,दान, पुण्य तप, तीर्थ आदि नए कर्म है। धन ,पुत्र, आदर ,सत्कार, निरादर ,निंदा ,प्रशंसा आदि प्रारब्ध से होने वाले हैं।
मानस में गुरु वशिष्ठ जी भरत जी से कहते है,
“हानि लाभ जीवन मरण जसु अपजसु बिधि हाथ”॥
पाप या पुण्य कर्म तो फल देकर नष्ट हो जाएंगे पर पाप पुण्य करने का स्वभाव जल्दी नष्ट नहीं होगा । स्वभाव ही मनुष्य को ऊंच नीच योनियों में ले जाता है। स्वभाव अच्छा हो तो मनुष्य किसी भी योनी में जाए सुख पायेगा।
गोपी है क्या ,,,,,? श्री कृष्ण दर्शन की लालसा ही तो गोपी है ,,,, गोपी कोई स्त्री नहीं , गोपी कोई पुरुष भी नहीं ,,,, गोपी रूप जीव जो परमात्मा से प्रेम करता है , तभी प्रभु माया का पर्दा हटाकर प्रकट हो जाते हैं। जीव जब तक जगत में प्रेम करता है तब तक जीव को संसार के विषय (पदार्थ) मीठे लगते हैं। प्रेम किसी सीमा में बांधा नहीं जा सकता।
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बूंद समानी सिंधु में यह सब जानत कोइ।
सिंधु समानों बिंदु में जानत बिरला कोइ॥
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बचपन गया ,जवानी गई, प्रौढा अवस्था गई, आ गया बुढापा , फिर भी विषयों से बैराग्य नहीं हो रहा है ,,, बाल पक रहे हैं , दांत हिल रहे हैं, आंखों से ठीक सूझता नहीं, कानों से ठीक सुनाई पड़ता नहीं , परंतु विषयों की आसक्ति कम नहीं होती।
जीवन के तमाम सुख भोग लिए, विषयों के खट्टे मीठे अनुभव प्राप्त कर लिए, फिर भी विषयों की लालसा कम नहीं होती, व्रत किए ,,, उपवास किए ,, संयम किए, साधना की, पर विषयों की लत पीछा नहीं छोड़ती।
लोग कहते हैं कि “मणिकर्णिका” घाट पर दो चार घंटे बिताओ तो बैराग्य हो जाएगा,,, चिताओं की धू-धू करती लपटों को देखकर संसार से विरक्ति हो जाएगी ,,,
पर कहां,,,,? कहां हो पाता है ऐसा ,,,,,? अनेक बार गया हूं मणिकर्णिका पर ,,,, अपनों के साथ , पराओ के साथ ,,,, परम प्रिय देहो को अग्नि में भस्मसात करते देखा है, पर कहां हुआ वैराग्य।
मतलब कहने का यह है , कि जब तक जीव अपने मन बुद्धि से लग्न के साथ कोई कार्य करे तभी वह सफलता की चरम ऊंचाई को छू पाते है।