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दिव्य अयोध्या का वर्णन भाग 1

साकेत स्वर्णपीठे मणिगणखचिते कल्पवृक्षस्य मूले
नानारत्नौघपुञ्जे कुसुमितविपिने नेत्रजास्वक्षकूले।
जानक्यकङ्के रमन्तं नृपनयविधृतं मंत्रजाप्यैकनिष्ठं
रामं लोकाभिरामं निजहृदिकमले भाषयन्त भजेऽहम्।।

साकेतरासरसकेलिविधौ विदग्धां
ब्रह्मेन्द्ररुद्रवसुवृन्दसशक्तिजुष्टाम्।
आनन्दब्रह्मद्रवरुपमतीं नतोऽस्मि
तां। रामप्रेमजलपूरणब्रह्मरूपाम्।।
ब्रह्मादिभिः सुखरैः समुपास्यमानां
लक्ष्म्यादिभिष्च सखिभिः परिसेव्यमानाम्।
सर्वेश्वरैः सहगणैः परिगीयमानां
तां राघवेंद्रनगरीं नितरां नमामि।।

दिव्यातिदिव्य साकेतलोकमें भगवान के नेत्र (जल) से उत्पन्न सरयू नदीके निर्मल कूलपर पुष्पित कानन है । उसके अंतर्गत कल्पवृक्ष के मूल में जो नाना प्रकार की रत्नराशिका पुंज मात्र है , मणिजड़ित एक स्वर्णमय पीठ है । उसपर जगज्जननी जानकी के साथ केलिमें रत , राजनीति के धुरंधर, अपनी आराध्या एवं प्रियतमा भगवती जानकीके ही मंत्रजप में अनन्य भाव से परायण तथा अपने निजजनोंके हृदय रूपी कमल में प्रकाश फैलाते हुए लोकसुखदायक भगवान श्री राम का भजन करता हूं।
मैं उन नदीश्रेष्ठ भगवती सरयूको प्रणाम करता हूं, जो साकेतलोकमें निरंतर होने वाली रासरुपी सरस केलिके विधान में परम पटु हैं, जो शक्तिसहित ब्रह्मा, रुद्र, वसु आदि देवगणोंके द्वारा सेवित हैं, जिनके रूप में स्वयं आनंदमय ब्रह्माजी ही द्रवित होकर प्रवाहमान हैं तथा जो भगवान श्रीराम के नेत्रों से निकले हुए प्रेमाश्रुओंसे पूर्ण ब्रह्मस्वरूपा है।‌
मैं भगवान‌् राघवेंद्रकी राजधानी अयोध्यापुरीकी आदर पूर्वक वंदना करता हूं, जो ब्रह्मादि देववरोंके द्वारा उपासित हैं, भगवती लक्ष्मी प्रभृत्ति अपनी सखियों द्वारा सुसेवित हैं और जिनका अपने-अपने गणों (पार्षदों) सहित संपूर्ण ईश्वरकोटिके देवताओं के द्वारा स्तवन किया जाता है ‌।
।।श्रीरामभक्ति अंक।।

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