श्रीपार्वत्युवाच
श्रीपार्वतीजीने पूछा- हे देवोंके स्वामी! कबसे आप
कदा प्रभृति देवेश स्वर्गद्वारे विराजते।
तन्मे कथय भोः शीघ्रं प्रतिष्ठा केन ते कृता ॥
स्वर्गद्वारमें [नागेश्वरनाथ नामसे] विराजते हैं, इसको आप शीघ्र
कहिये तथा आपकी स्थापना किसने की? ॥ 1।।
श्रीशङ्कर उवाच:
शृणु प्रिये मयाख्यातं यदाप्रभृति मे स्थितिः ।
वैकुण्ठभवने याते रामचन्द्रे परात्मनि ॥ २ ॥
पुत्रं कुशं कुशावत्यां राज्यं दत्वा महामतिः ।
अयोध्यायां तदा देवास्तीर्थानि निवसन्ति हि ॥ ३ ॥
श्रीशंकरजीने कहा- हे प्रिये ! जबसे मेरी स्थिति स्वर्गद्वारमें
हुई, वही मैं तुम्हें बतला रहा हूँ, [ध्यान देकर] सुनो। जिस
समय परमात्मा श्रीरामचन्द्रजी अयोध्याको छोड़कर वैकुण्ठलोकको
चले गये। [साकेतयात्रासे पहले] महामतिमान् श्रीरामचन्द्रजीने
अपने पुत्र कुशको कुशावती नगरीका राज्य दे दिया। [वे
अयोध्यावासी समस्त जीवोंको साकेतमें ले गये, उस समय
अयोध्या सूनी हो गयी थी।] तब केवल तीर्थ तथा देवता ही
अयोध्यामें रह गये थे ॥ २-३ ॥
तदायोध्या स्वयं गत्वा ह्यर्धरात्रे कुशावतीम् ।
एकाकी च कुशो यत्र सुष्वाप नृपतिर्गृहे ॥ ४ ॥
उस समय अयोध्यापुरी [देवीका रूप धारणकर] आधी
रातकी वेलामें कुशावती नगरीमें वहाँ गयी, अपने राजमहलमें
जहाँपर महाराज कुश अकेले सो रहे थे ॥ ४ ॥
दृष्ट्वाऽयोध्यामुवाचाथ कुतश्चागमनं तव ।
देवी वा मानुषी वा त्वं किन्नरी वासि शोभने ॥ ५ ॥
महाराज कुशने देवीरूपमें अयोध्यापुरीको देखकर पूछा- हे
सुन्दरी! तुम कहाँसे आयी हो, तुम देवी हो या मानुषी हो या
किन्नरी हो? [तुम किसलिये अर्धरात्रिमें आयी हो ? ] ॥ ५ ॥
रघूणां च कुले जातः परस्त्रीषु न गच्छति ।
हेतुना केन भो देवि ह्यागतासि ममालयम् ॥ ६ ॥
रघुवंशमें उत्पन्न होनेवाला कोई भी पुरुष परायी स्त्रीके साथगमन नहीं करता। है देवि ! मेरे भवनमें इस समय किस कारण
आयी हो ? ॥६॥
अयोध्योवाच
तव पित्रा महाराज नीता मे पुरवासिनः ।
स्वपदं गन्तुकामेन स्वर्गं प्राप्ताश्च कोटिशः ॥ ७ ॥
अयोध्यापुरीने कहा – हे महाराज! अपने परमपद साकेतलोकको
जाते समय आपके पिता श्रीरामचन्द्रजी मुझ अयोध्यापुरीके सारे
निवासियोंको अपने साथ ले गये तथा [दूसरे ] करोड़ों प्राणी भी
[उन्हींके प्रभावसे] स्वर्गमें पहुँच गये॥७॥
समग्रशक्तौ
त्वयि भो
सूर्यवंशविभूषणे ।
अवस्थामीदृशीं प्राप्ता नारकैरपि वर्जिताम् ॥ ८॥
सूर्यवंशके भूषण हे महाराज कुश! आपमें सभी प्रकारकी
शक्तियाँ रहनेपर भी मेरी (अयोध्यापुरीकी) ऐसी दुर्दशा है, जो
नारकीय जीवोंकी भी नहीं हो सकती ॥ ८ ॥
भग्ना मे रचना सर्वा शास्तापि प्रभुणा विना ।
अस्तसूर्या यथा सन्ध्या वायुना मेघमण्डलैः ॥ ९ ॥
किसी समर्थ स्वामीके बिना मैं शासकविहीन हो गयी हूँ,
मुझ अयोध्यापुरीकी समस्त रचनाएँ छिन्न-भिन्न हो गयी हैं।
जिस प्रकार वायुके द्वारा प्रेरित मेघमण्डलोंसे सूर्यके आच्छादित
हो जानेपर सन्ध्याकी प्रतीति होने लगती है, वही मेरी दशा हो
रही है ॥ ९ ॥
ईदृशी न कृता कैश्चित् तव पूर्वैर्महात्मभिः ।
तव पित्रा यथा वत्स मयि वासं कुरुष्व च ॥ १० ॥
हे वत्स! तुम्हारे पिता श्रीरामचन्द्रजीके द्वारा जो दशा मेरी की
गयी है, ऐसी दशा तुम्हारे किसी भी पूर्वज राजाद्वारा नहीं कीगयी। [अतः ] तुमको मुझ (अयोध्या) में निवास करना चाहिये ॥ १० ॥
कुश उवाच
एवं वदसि
भो देवि नास्ति दोषः पितुर्मम ।
तव वासाद् गताः सर्वे लोकं सन्तानकं जनाः ।। ११ ।।
कुशने कहा – हे देवि अयोध्ये! जो तुम ऐसा कह रही हो,
इसमें मेरे पिताजीका कुछ भी दोष नहीं है। आप (अयोध्यापुरी) –
में निवास करनेके पुण्यप्रभावसे ही समस्त प्राणी सन्तानक
लोकको चले गये हैं ॥ ११ ॥
अयोध्योवाच
यदि वासाद् गताः सर्वे जनाः स्वर्गं न संशयः ।
यदि स्वर्गो बहुमतस्तव राजन् हि वर्तते ॥ १२॥
मयि वासं कुरुष्वेति ह्यन्तर्धानं च सा गता।
व्यतीतायां निशायां तु मन्त्रिणस्तदपृच्छत ॥ १३ ॥
अयोध्यापुरीने कहा – हे राजन् ! यदि मेरी पुरीमें निवास
करनेके पुण्यप्रभावसे सभी लोग स्वर्ग चले गये और इसमें सन्देह
भी नहीं है तथा यदि आपको भी स्वर्ग अति प्रिय है, तो
मुझ अयोध्यापुरीमें ही आप निवास कीजिये | [शिवजी कहते
हैं—] ऐसा कहकर वह तत्काल अन्तर्धान हो गयी। [तब]
रातके बीत जानेपर महाराज कुशने मन्त्रियोंसे [अयोध्यावासके
लिये] सलाह ली ॥ १२-१३ ॥
मन्त्रिणामनुमत्या तत्पुरं ब्राह्मणसात्कृतम् ।
सैन्येन
महता
सार्धमाजगामात्मनः पुरीम् ॥ १४ ॥
[तदनन्तर] महाराज कुश मन्त्रियोंकी अनुमतिसे कुशावती
नगरीको ब्राह्मणोंको देकर बहुत बड़ी सेनाके साथ अपनी नगरी
अयोध्यापुरीमें आ गये॥ १४ ॥
यथायोग्यं
महामतिः ।
वासयामास नगरं
एकदा नावमारूढो
विजहार सखीजनैः ॥ १५ ॥
महाबुद्धिमान् कुशजीने जैसा चाहिये, वैसे ही पूर्वकी भाँति
पुनः पुरीको बसाया – जीर्णोद्धार किया। एक दिनकी बात है, वे
लगे ॥ १५ ॥
मित्रोंके साथ नौकामें बैठकर सरयूजीमें जल-विहार करने
दृतिभिः
सिच्यमानोऽसौ विजहार नदीजले ।
कुमुदो नाम नागस्तु सरय्वां वसते सदा ॥ १६ ॥
पिचकारी आदि स्नपनयोग्य पात्रोंसे क्रीडा करते हुए महाराज
कुश नदीके जलमें विहार करने लगे। सरयूजीमें एक कुमुद
नामका नाग सर्वदा रहता था ॥ १६ ॥
कुमुद्वती च भगिनी तस्य नागस्य सुन्दरी ।
मोहिता रूपमालोक्य जहार करकङ्कणम् ॥ १७ ॥
उस नागकी बहन बड़ी सुन्दरी थी, जिसका नाम कुमुद्वती
था। उसने महाराजके सौन्दर्यपर मोहित होकर उनके हाथके
कंगनको चुरा लिया ॥ १७ ॥
रामाय
कुशो नैव विजानीते क्रीडनासक्तमानसः
कृत्वा विहारं तु जलाद् बहिर्निर्गत्य भूमिपः ॥ १८ ॥
न ददर्शात्मनो हस्ते तद् वै विजयकङ्कणम् ।
अगस्त्येन पुरा दत्तं
परमात्मने ॥ १९ ॥
जलक्रीडामें आसक्त मनवाले महाराज कुशको इस बातकी
जानकारी न हो सकी कि उनका कंगन चोरी हो गया है, और
वे विहार करके जब जलसे बाहर आये, तो अपने हाथमें उस
विजय-कंकणको न देखा, जिसको पूर्वकालमें अगस्त्यजीने
परमात्मा श्रीरामचन्द्रजीको दिया था ॥ १८-१९ ।।
रामचन्द्रस्तु पुत्राय दत्वा स्वपदमन्वगात् ।
शुशोच तस्य लाभाय भूषणार्थं न राजराट् ॥ २० ॥
श्रीरामचन्द्रजी उस कंकणको अपने पुत्र कुशको देकर साकेत
चले गये। महाराज कुशने [यह सोचकर कि वह कंकण एक तो
पिताका दिया हुआ, दूसरे अगस्त्यजीका प्रसाद, तीसरे विजयकंकण,
इसलिये बड़ा] शोक किया, उनका शोक भूषणके लिये नहीं था,
क्योंकि वे राजाओंके भी राजा थे ॥ २० ॥
जगृहे विशिखं तीक्ष्णमग्निमन्त्रेण मन्त्रितम् ।
दृष्ट्वा सरयूर्देवी पादपद्ममुपागता ॥ २१ ॥
तदुपरान्त महाराजने अग्निमन्त्रसे अभिमन्त्रित तीखे बाणको
हाथमें उठाया। इस घटनाको देखकर सरयूदेवी महाराज
चरणकमलोंके पास जा पहुँचीं ॥ २१ ॥
ब्रुवन्ती त्राहि त्राहीति मम दोषो न विद्यते ।
कुमुदो नाम नागस्तु भगिन्या तस्य तद् हृतम् ॥ २२ ॥
और ‘रक्षा करो, रक्षा करो’ ऐसा कहने लगीं। ‘मेरा इसमें
कुछ भी दोष नहीं है, कुमुद नामक नागकी बहन कुमुद्वतीने उस
कंकणको चुराया है’— ऐसा सरयूजीने बतलाया ॥ २२ ॥
तच्छ्रुत्वा जगृहे बाणं गारुडं तद्वधाय वै ।
सर्पराजस्तु तद् दृष्ट्वा भगिन्या सह पार्वति ॥ २३ ॥
पपात चरणोपान्ते कंकणं च समर्पयत्।
क्षमस्व मम दौरात्म्यं भगिन्या यत् कृतं नृप ॥ २४ ॥
हे पार्वती! ‘नागकी बहन कुमुद्वतीने कंकण चुराया है’ ऐसा
सुनकर उसके वधके लिये कुशने गरुड़ास्त्रको हाथमें लिया।
यह देखकर सर्पराज कुमुद अपनी बहन कुमुद्वतीके साथ
महाराज कुशके चरणोंमें गिर पड़े और उस कंगनको अर्पण करदिया तथा प्रार्थना की कि महाराज ! मेरी बहन कुमुद्वतीने जो
दुष्टता की है, उसे आप क्षमा करें ॥ २३-२४॥
श्रीशङ्कर उवाच
कुमुदो मम भक्तो हि नागराजः प्रियो मम ।
तस्य कष्टं समालोक्य प्रत्यक्षमभवं प्रिये ॥ २५ ॥
श्रीशंकरजीने कहा- हे प्रिये ! नागराज कुमुद मेरा भक्त है।
इस कारण मेरा प्रिय भी है। अतः उसके कष्टको देखकर
[कुशके सामने] मैं प्रत्यक्ष रूपसे प्रकट हो गया ॥ २५ ॥
मां दृष्ट्वा कुशराजस्तु जग्राह चरणौ मम ।
प्रांजलिर्भूत्वा ममागमनकारणम् ॥ २६ ॥
मुझे देखकर महाराज कुशने मेरे चरणोंमें प्रणाम किया तथा
हाथ जोड़कर मेरे आनेका कारण पूछा॥२६॥
उवाच तदाहमब्रुवं राजन्भ क्तरक्षार्थमागतः ।
कुमुवत्यस्य भगिनी पत्त्यर्थं प्रतिगृह्यताम् ॥ २७ ॥
वरं ब्रूहि महाराज मुंच नागं महाबल।
[हे पार्वती!] तब मैंने कहा- हे राजन्! मैं अपने भक्तकी
रक्षाके लिये आया हूँ। इस भक्त नागकी बहन कुमुद्वतीको
अपनी पत्नी बनानेके लिये आप ग्रहण करें। महाराज ! वर
दीजिये ।। २७१/२ ।।
माँगिये । हे महाबलशाली! आप इस मेरे भक्त नागको छोड़
कुश उवाच
स्वर्गद्वारे
सदा तिष्ठ नागेश्वरप्रथामगाः ॥ २८ ॥
कुशने कहा- [ हे भक्तरक्षक भोलेनाथ!] आप भक्तोंकी
रक्षाके निमित्त स्वर्गद्वारमें सदा निवास कीजिये तथा आपकी प्रसिद्धि नागेश्वरनाथ नामसे हो ॥ २८ ॥
इत्युक्त्वा पूजयामास पूजोपकरणैः स माम् ।
ॐ नमः श्रीशिवायेति मन्त्रं चापि जजाप सः ॥ २९ ॥
ऐसा वर माँगकर पूजासामग्रीके द्वारा कुशने मेरा पूजन किया।
तथा इस ‘ॐ नमः श्रीशिवाय’ मन्त्रका जप भी किया ॥ २९ ॥
प्रत्युवाच जनान् राजा कुशाख्यः पङ्कजेक्षणः।
स्वर्गद्वारे नरः स्नात्वा दृष्ट्वा नागेश्वरं शिवम् ॥ ३० ॥
पूजयित्वा सुविधिवत् सर्वान् कामानवाप्नुयात् ।
स्वर्गद्वारे नरः स्नात्वा पूजयेद् वृषभध्वजम् ॥ ३१ ॥
सम्पूर्णा तस्य यात्रा स्यादन्यथार्धफलप्रदा ।
तदनन्तर कमलनेत्र महाराज कुशने अपनी प्रजाको आज्ञा दी
कि स्वर्गद्वारमें जो मनुष्य स्नान तथा श्रीनागेश्वरनाथजीका दर्शन
करके उनका विधानपूर्वक पूजन करता है, उसकी सभी कामनाएँ
परिपूर्ण होती हैं, इसलिये स्वर्गद्वारमें स्नान करके मनुष्य
नागेश्वरनाथजीका पूजन अवश्य करे। श्रीनागेश्वरजीका दर्शन
करके ही उसकी तीर्थयात्रा परिपूर्ण होगी, अन्यथा उसको
तीर्थयात्राका आधा पुण्यफल ही मिलेगा ॥ ३० – ३११/२ ॥
श्रीशङ्कर उवाच:
इत्युवाच कुशो राजा प्रविवेश गृहं स्वकम् ॥ ३२ ॥
राजमहलमें चले गये ॥ ३२ ॥
श्रीशंकरजीने कहा- ऐसा कहकर महाराज कुश अपने
मासं सम्पूज्य विधिवन्नागोऽपि स्वगृहं गतः ।
तदा प्रभृति भो देवि स्वर्गद्वारे वसाम्यहम् ॥ ३३ ॥
नागराज कुमुद भी एक मासपर्यन्त नागेश्वरलिंगका नियमतःपूजन करके अपने घरको चले गये। हे देवि! उसी समयसे मैं
स्वर्गद्वारमें निवास करता हूँ ॥ ३३ ॥
( श्रीरुद्रयामल़ोक्त अयोध्या माहात्म्य)