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उपनयनसंस्कार / यगोपवीत संस्कार

‘उपनयन’ शब्द ‘उप’ उपसर्गपूर्वक ‘नी’ धातुसे ‘ल्यु’ प्रत्यय करनेपर निष्पन्न होता है। उप अर्थात् आचार्यके समीप नयन अर्थात्बा लकको विद्याध्ययनके लिये ले जानेको उपनयन’ कहते हैं।

उपनयन-संस्कारकी महिमा

बालकके पिता आदि अपने पुत्रादिकोंको विद्याध्ययनार्थ आचार्यके पास
ले जायँ, यही उपनयन शब्दका अर्थ है। बालकमें यह योग्यता आ
जाय इसलिये विशेष-विशेष कर्मद्वारा उसे संस्कृत किया जाता है, उसे
संस्कृत करनेका संस्कार ही उपनयन या यज्ञोपवीत संस्कार है।

इसीका नाम व्रतबन्ध भी है। इसमें यज्ञोपवीत धारणकर बालक
विशेष-विशेष व्रतोंमें उपनिबद्ध हो जाता है। द्विजोंका जीवन व्रतमय
होता है, जिसका प्रारम्भ इसी व्रतबन्ध-संस्कारसे होता है। इस
व्रतबन्धसे बालक दीर्घायु, बली और तेजस्वी होता है –

‘यज्ञोपवीतमसियज्ञस्य त्वा यज्

संस्कारों में षोडश संस्कार मुख्य माने गये हैं, उनमें भी
उपनयनकी ही सर्वोपरि महत्ता है। उपनयनके बिना बालक किसी
भी श्रौत-स्मार्त कर्मका अधिकारी नहीं होता।

‘न ह्यस्मिन् युज्यते कर्म किञ्चिदामौञ्जिबन्धनात्’ (मनुस्मृ० २ । १७१) ।

यह योग्यता
उपनयन-संस्कारके अनन्तर यज्ञोपवीत धारण करनेपर ही प्राप्त होती है। उपनयनके बिना देवकार्य और पितृकार्य नहीं किये जा सकते और श्रौत-स्मार्त-कर्मोंमें तथा विवाह, सन्ध्या, तर्पण आदि कर्मोंमें भी उसका अधिकार नहीं रहता। उपनयन संस्कारसे ही द्विजत्व प्राप्त होता है। उपनयन संस्कारमें समन्त्रक एवं संस्कारित यज्ञोपवीत-धारण तथा गायत्री मन्त्रका उपदेश – ये दो प्रधान कर्म होते हैं, शेष कर्म अंगभूत कर्म है।

उपनयनका अधिकार केवल द्विजाति (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य)- को है।

मातुर्यदग्रे जायन्ते द्वितीयं मौजिबन्धनात् ।
ब्राह्मणक्षत्रियविशस्तस्मादेते द्विजाः स्मृताः ॥(याज्ञवल्क्यस्मृति १ । ३९)


उपनयनका अधिकार केवल द्विजाति (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य)-प्रथम माता के गर्भ से उत्पत्ति तथा द्वितीय जन्म मौंजीबन्धन- उपनयनसंस्कारद्वारा होनेसे ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्योंकी द्विज संज्ञा है-

जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः संस्कारैर्द्विज उच्यते ।
विद्यया वापि विप्रत्वं त्रिभिः श्रोत्रिय उच्यते ॥

इसीलिये द्विजोंका दो बार जन्म होता है और दो बार जन्म होनेसे
ही द्विजसंज्ञा सार्थक होती है—

‘द्विधा जन्म । जन्मना विद्यया च।’

तैत्तिरीय संहिताने बताया है कि मनुष्य तीन ऋणोंको लेकर जन्म लेता है-१-ऋषि-ऋण, २ – देव-ऋण तथा ३-पितृ ऋण। इन तीन ऋणोंसे मुक्ति बिना यज्ञोपवीत-संस्कार हुए सम्पन्न नहीं होती।

पालनकर ऋषियों के ऋणसे मुक्त होता है, यजन-पूजन आदिके द्वारा देव-ऋणसे मुक्त होता है और गृहस्थधर्मके पालनपूर्वक सन्तानोत्पत्तिसे पितृ-ऋणसे उऋण
होता है। यदि यज्ञोपवीत-संस्कार न हो तो इन तीनों कर्मोंको करनेका
उसका अधिकार नहीं रहता, अतः यज्ञोपवीत-संस्कारका बहुत महत्त्व
है।

किस स्थितिमें नवीन यज्ञोपवीत धारण करें।

किस स्थितिमें नवीन यज्ञोपवीत धारण करें।आजकल कई लोग संयम-नियम पालन करनेके डरसे जनेऊ लेना नहीं चाहते।


यह उचित नहीं है। अपनी मनःस्थितिके अनुसार यथासम्भव नियम पालन करते हुए जनेऊ लेना अवश्य अनिवार्य है।
१-यदि स्वतःकी असावधानीसे यज्ञोपवीत बाँये कन्धेसे खिसककर बाँये हाथके नीचे आ जाय या उससे निकलकर कमरके नीचे आ जाय या वस्त्रादि उतारते समय उससे लिपटकर शरीरसे अलग हो जाय
अथवा यज्ञोपवीतका कोई धागा टूट जाय तो नवीन प्रतिष्ठित यज्ञोपवीत धारण करना चाहिये-
‘वामहस्ते व्यतीते तु तत् त्यक्त्वा धारयेत् नवम्।’
२- मल-मूत्रका त्याग करते समय कानमें लपेटना भूल जाय अथवा कानमें लिपटा सूत्र कानसे सरककर अलग हो जाय-
मलमूत्रे त्यजेद् विप्रो विस्मृत्यैवोपवीतधृक् ।
उपवीतं तदुत्सृज्य धार्यमन्यन्नवं तदा ॥

(आचारेन्दु)
३-उपाकर्म, जननाशौच, मरणाशौच, श्राद्धकर्म, सूर्य-चन्द्रग्रहणकेसमय, अस्पृश्यसे स्पर्श हो जाने तथा श्रावणीमें यज्ञोपवीतको अवश्य
बदल लेना चाहिये –
४-प्रायः तीन-चार मासमें यज्ञोपवीत शरीरके मलादिसे दूषित और जीर्ण हो जाता है, अतः नया यज्ञोपवीत धारण करे-
धारणाद् ब्रह्मसूत्रस्य गते मासचतुष्टये |
त्यक्त्वा तान्यपि जीर्णानि नवान्यन्यानि धारयेत् ॥
(गोभिल आचारभूषण)
उपर्युक्त स्थितियों में उपाकर्म संस्कारके समय अभिमन्त्रित उपवीत को अथवा अभिमन्त्रित यज्ञोपवीत न होनेकी स्थितिमें विधिसे अभिमन्त्रित
कर उपवीतको धारण करे।अभिमन्त्रित यज्ञोपवीतको धारण करना-स्नानादिकर एक आसनपर बैठकर नवीन यज्ञोपवीतमें हल्दी
लगाकर संकल्पकर, विनियोग एवं मन्त्र पढ़कर ही यज्ञोपवीत पहनना चाहिये-इसके उपरान्त यथाशक्ति गायत्रीमन्त्रका जप करे अथवा कम- से-कम दस गायत्रीमन्त्रका जप करे और ‘ॐ तत्सत् श्रीब्रह्मार्पणमस्तु’
कहते हुए हाथ जोड़कर भगवान्का स्मरण करे।यज्ञोपवीत ब्रह्मसूत्र है। गायत्रीमन्त्रद्वारा अभिमन्त्रित है। इसमें नौ देवताओंका वास है। अतः इसकी प्रतिष्ठाको बनाये रखने के लिये जरूरी है कि यह सदा पवित्र रहे, जिससे इसके धारणकर्ताका बल,
आयु और तेज अक्षुण्ण बना रहे।शौचादिके समय यज्ञोपवीतकी स्थिति- गृह्यसूत्रकारोंने उपवीतको शौच, लघुशङ्काके समय दाहिने कानमें लपेटनेका विधान किया है, यथा-
१-‘निवीती दक्षिणकर्णे यज्ञोपवीतं कृत्वा पुरीषे विसृजेत्
(वैखानसधर्मप्रश्न २।९।१ शौचविधि)।

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