महर्षि कश्यप की कई पत्नियां थीं। उनमें से दो प्रमुख थीं कद्रू और
विनता। विवाह के कुछ समय बाद कद्रू और विनता ने कश्यप से संतान- प्राप्ति की व्यक्त की। कश्यप के पूछने पर कद्रू ने एक हजार पुत्रों की कामना की जबकि विनता बोली मुझे केवल दो पुत्र चाहिए, जो यशस्वी हो। महर्षि कश्यप ने वास्तु कहकर दोनों आशीर्वाद दिया।समय आने पर कटू ने एक हजार अंडे और बिनता ने दो अंडे उत्पन्न किए। कद्रू के अंडों में से नियत समय पर काले सर्प निकले और धरती पर रेंगने लगे। परंतु विनता के दोनों अंडे जस के तस रहे। काफी प्रतीक्षा के बाद भी अंडों से बच्चे नहीं निकले। कटू के बच्चे बड़े हो गए किंतु विनता के अंडे यूं ही रखे रहे। विनता पहले तो चिंतित हुई फिर धीरे-धीरे उसके मन में
कद्रू के प्रति ईर्ष्या पैदा हो गई। एक दिन विनता का धैर्य समाप्त हो गया। उसने
एक अंडे को जबरदस्ती फोड़ दिया। उसके भीतर एक पक्षी था। लेकिन वह पूर्ण रूप से विकसित नहीं हुआ बाहर निकला तो उसकी त्वचा कच्ची और गुलाबी थी। उसके शरीर का था। वह केवल ऊपरी आधा भाग ही विकसित हो पाया था।विनता
अपने अर्ध्दविकसित पुत्र को देखकर रोने लगी। देखो तो उसे माता की
अंडे से निकल बच्चे ने अपनी अपूर्ण काया देखीं तो उसे माता की अधीरता पर क्रोध आया। उसने विनता को शाप दिया तुमने समय से पहले अंडा फोड़कर मेरा जीवन नष्ट कर दिया। मैं तुम्हे शाप देता हूं कि जिस कटू से तुम्हें ईर्ष्या है, तुम उसी की 500 वर्ष तक दासी बनकर रहोगी। दूसरे अंडे का ध्यान रखना क्योंकि उससे निकलने वाला तुम्हारा दूसरा पुत्र ही कद्दू की दासता से तुम्हें मुक्ति दिलाएगा।
यह कहकर विनता का पुत्र आकाश में बढ़ गया। उसका नाम अरुण
था। वह इतना तेजवान था कि उसने ज्यों ही उड़ान भरी, आकाश गुलाबी
आभा से रजित हो गया। उसका तेज देखकर सूर्यदेव भी प्रभावित हुए।
उन्होंने अरुण को अपना सारथी बना लिया। सूर्यदेव का रथ जब निकलता तो रथ के आगे बैठा उनका सारथी अरुण, सूर्यदेव से पहले प्रकट हो जाता। इसीलिए सूर्योदय से पहले आकाश गुलाबी दिखता है। और अरुण के नाम पर ही उस गुलाबी आभा को अरुणिमा कहते हैं। इस घटना के कुछ दिन बाद विनता और कद्रू में एक शर्त लगी और यह तय हुआ कि जो शर्त हारेगा, वह दूसरे का दास बनेगा कटू छल
से शर्त जीत गई और विनता को 500 वर्ष के लिए कद्रू का दासत्व स्वीकार करना पड़ा ।अरुण का शाप फलीभूत हो गया। विनता का दूसरा अंडा समय से फूटा और उसमें से एक विशाल पक्षी निकला। वह गरुड़ था। गरुड़ बड़ा हुआ तो उसे अपनी माता विनता के दासत्व का पता लगा। उसने कद्रू के सर्प-पुत्रों से विनता को मुक्त करने का आग्रह किया दुष्ट सपों ने गरुड़ से कहा, ‘यदि तुम देवलोक से अमृत
लाकर हमें दे दो, तो हम तुम्हारी माता का मुक्त कर देंगे।’ गरुड़, पर्वतों से विशाल और देवताओं से अधिक सामर्थ्यवान था। वह अमृत लेने देवलोक पहुंच गया। देवताओं ने बहुत प्रयास किया, पर गरुड़ उन्हें परास्त करके अमृत का कलश ले गया। गरुड़ इतना निष्ठावान था कि अमृत पास होने के बावजूद उसके मन में
अमृत की चखने की इच्छा उत्पन्न नहीं हुई। उसकी इस निष्ठा से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने गरुड़ को अपना वाहन बना लिया। अमृत कलश लेकर गरुड़ कद्रू के सर्प-पुत्रों के पास पहुंचा और उसने कलश कुश घास पर रख दिया। अमृत कलश को देखकर सर्प अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने विनता को कद्रू के दासत्व से मुक्त कर दिया। परंतु गरुड़ के लिए एक काम शेष था। सर्पों को अमृतपान करने से रोकना था। इसके लिए गरुड़ ने सर्पों से कहा कि उन्हें स्नान के उपरांत ही अमृतपान करना चाहिए। सर्प नदी की ओर चले गए। इस बीच गरुड़ ने अमृत- कलश उठाया और फिर से उसे इंद्र को सौंप दिया। सर्प, जब स्नान करके लौट तो अमृत कलश की वहाँ न पाकर उन्हें क्रोध आ गया। क्रोध ने बुद्धि हर ली। वे कुश घास पर टपके अमृत को पीने की मंशा से नुकीली घास को चाटने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि घास की नोक को चाटने से सर्पों की जीभ के दो हिस्से हो गए। तब से, सांप की जीभ दो भाग में बंटी होती है।